लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
अर्से बाद, उस दिन एक नाटक देखा। आजकल नाटक देखती ही नहीं। फुर्सत भी नहीं है और देखकर अच्छा भी नहीं लगता। अच्छा न लगने की कई वजहें हैं। जो। नाटक देखकर, यह कॉलम लिख रही हूँ, वह इसीलिए कि इस नाटक ने मुझे मुग्ध किया है। नाटक का नाम है-विषाद सिंधु! फॉर्म में यूरोपीय नाटकों जैसा! इसमें हमारे लोक-नाट्य का स्वाद है। मुस्लिम मिथ-इन सबको मिलाकर इस नाटक में जो कहा गया है वह यही कि ज्ञान का संधान ही मानव जनम का सार है। इसमें हसन-हुसेन से लेकर मुहम्मद तक, कोई भी पूत-पवित्र इंसान नहीं है। इसमें सभी लोग दोष-गुण, लोभ-मोह, हिंसा में यजीदि माबिया की तरह ही हैं यानी अँधेरे समाज के अन्यान्य इंसानों की तरह। और ज़्यादा जंग नहीं, मृत्यु नहीं, मानवता की ही विजय हो, यही इस नाटक का सार-संवाद है।
उत्पल दत्त का एक नाटक देखा था-जनता की अफीम। सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ, ऐसा असाधारण नाटक कोई दूसरा देखने को नहीं मिला। उस नाटक में हिंदू धर्म की फाँकीबाजी, पाखंड की पोल खोली गई थी। जो लोग धर्म का कारोबार चलाते हैं, उन लोगों को भी बखूबी पटखनिया दी गई थी। लेकिन यहाँ जुबान पर पहरा है। जुबान खोली नहीं कि बयतुल मुकर्रम में सभा बुलाई जाती है; मस्जिदों में लीफलेट बाँटे जाते हैं; 'इंकलाब' या 'संग्राम' में पोस्ट-एडीटोरियल लिखे जाते हैं; फाँसी की माँग की जाती है! हम सब ऐसे अज्ञानी अंधकार में वास कर रहे हैं ऐसे दमघोंटू समय से गुज़र रहे हैं कि विषाद सिंधु, हसन-हुसेन के लिए विलाप करने के अलावा और कोई सच्चाई भी जुबान पर ला सकती है, ऐसा अहसास मुझे पहले कभी नहीं हुआ था। देश में अच्छे नाटकों का, जैसे अकाल पड़ गया हो।
उस दिन भी 'ईर्ष्या' नाटक देखने के बाद कई-कई जागरूक लोगों ने आहत लहजे में मुझसे कहा, 'एक औरत को लेकर, दो-दो मर्यों में छीन-झपट हुई। इसे ही खब मजा ले-लेकर दिखाया गया। औरत मानो मछली या मांस का टुकड़ा हो। जिसे अपने पंजों में पकड़कर, भूखे मर्द अभी, इसी वक्त खा-चबा जाएँगे।'
विषाद सिंधु में हसन की मौत को लेकर कुछ ज़्यादा ही आहजारी हुई है, इतना-सा न भी होती, तो चल सकता था? इनके बीच-बीच में ज़रा और भी ज्ञान का संधान किया जाता, तो मेरा मन और खुश होता। यह नाटक की कोई त्रुटि नहीं है। यह मेरा प्रस्ताव है! जायेदा को डाकिनी-नागिनी न कहकर, बहुगामी पति के प्रति उसके क्रोध को तर्कसंगत कहने की काफी गुंजाइश थी।
इस्लाम की कथा-कहानी को लेकर कोई सवाल नहीं किया जा सकता। इस्लाम कहता है- 'अंधों की तरह विश्वास करना होगा।' अल-बकारा में लिखा है-'उन लोगों के दिल पर मैंने मुहर लगा दी है।' अल्लाह अगर दिल को मुहरबंद कर दें, तो ज्ञान का संधान कैसे होगा और अगर ज्ञान न बढ़ा तो मानवता की जय कैसे होगी? इंसान को किसी न किसी दिन युक्ति से समझौता तो करना ही होगा। अँधेरे में पड़े रहना, कोई बहादुरी नहीं है। प्रश्नहीन विश्वास मानव मुक्ति का उपाय नहीं है। विषाद सिंधु नाटक में जो बात मुझे सबसे ज़्यादा अच्छी लगी है, वह है-मंच पर प्रवेश करते ही घोषणा की जाती है, 'आरंभ में वंदना करते हैं, परम प्रकृति के सृष्टिकर्ता की!' मेरा विश्वास है कि प्रकृति को सृष्टिकर्ता मानकर, नाटक की यह यात्रा और भी सुदृढ़ हुई है! इंसान आज भी सच बोलने में दिलचस्पी रखता है। जानती हूँ, परिवेश प्रतिकूल है। फिर भी यही संदेश महिला समिति, मिलनायतन के डेढ़-दो सौ इंसानों में आबद्ध न करके इसे जन-जन में बिखेर दिया जाए। पता नहीं, इंसान अज्ञान के अँधेरे से कब मुक्त होगा। फिर भी सच को जाहिर करते रहना चाहिए या सत्य का संधान करना चाहिए। हम जो इंसान की विजय चाहते हैं। हम जो किसी भी सवाल को सामने लाना चाहते हैं, वहीं हम संगठित हो सकें। हम सब अगर एक ही मंच पर न खड़े हुए, तो तमाम सत्याग्रही लोगों में, कौन, कहाँ पड़ा हुआ है, हम किसी का भी पता ठिकाना नहीं जान पाएँगे। वे लोग अंदर ही अंदर हमारी आँखें निकाल रहे हैं, कुछ भी कहने का हक छीनते जा रहे हैं। इस तरह तो एक दिन समूचा देश गूंगे-बहरे, बोध-बुद्धिहीन लोगों से भर उठेगा और तब वे लोग जीत जाएँगे! जीत जाएँगे ये मूर्ख मस्तान, मुल्ले! अज्ञान, असत्य और अन्याय की विजय होगी।
अपने शक्तिमान हाथ, मंगलकामना में उठाने का अभी भी वक्त है! अभी भी वक्त है। पाठको! अगर आप लोग इंसान हैं, तो इंसान के लिए एक बार एकजुट हों।
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